Saturday, 21 May 2016

ग़ज़ल

एक क़िस्सा क्या अधूरा रह गया
ज़ीस्त का नक्शा अधूरा रह गया

वक़्त ने हर बार समझाया मगर
ज़ात का झगड़ा अधूरा रह गया

फिर सहन ये एक हो पाया नहीं
माई का सपना अधूरा रह गया

पीठ से ख़ंजर ने कर ली दोस्ती
और फिर बदला अधूरा रह गया

ज़ख्म जो था भर चुका कब का मगर
ये किरच-सा क्या अधूरा रह गया

तुम मिरे होकर रहे अनमोल और
भीड़ का गुस्सा अधूरा रह गया


- के. पी. अनमोल

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