बेटे ने दहलीज़ के, बाहर रक्खे पाँव।
सूना-सूना हो गया, माँ के मन का गाँव।।
जब ख़ुदगर्ज़ी के लिये, शुरू हुए टकराव।
तबसे डगमग हो गयी, संबंधों की नाव।।
फूल खिले गुलदान में, उगी लॉन में दूब।
कम करके विस्तार को, हुई तरक्क़ी ख़ूब।
धरी रही बंदूक भी, जंग लगी तलवार।
अबके मेरे यार ने, किया प्यार से वार।।
अंधियारी इक रात में, हावी था शैतान।
देवी अबला-सी लुटी, डूब मरा इंसान।।
वृद्ध आश्रम को चले, सूने हैं दालान।
धूप, चाय, अखबार की, सूख रही है जान।।
नौका, नाविक, नीर ने, डाल दिये हथियार।
तूफां से अब दुश्मनी, झेल रही पतवार।।
क़ैदी कुछ सुधरा अगर, हुई सफ़ल तब जेल।
ताम-झाम वरना गये, समझो सारे फ़ेल।।
घर के अंदर रात भर, चली आज तकरार।
काना-फूसी कर रही, किससे यह दीवार।।
अपनों ने दुत्कार कर, लेनी चाही जान।
खिला-पिला कर चल दिया, इक पागल अंजान।।
@ के. पी. अनमोल
सूना-सूना हो गया, माँ के मन का गाँव।।
जब ख़ुदगर्ज़ी के लिये, शुरू हुए टकराव।
तबसे डगमग हो गयी, संबंधों की नाव।।
फूल खिले गुलदान में, उगी लॉन में दूब।
कम करके विस्तार को, हुई तरक्क़ी ख़ूब।
धरी रही बंदूक भी, जंग लगी तलवार।
अबके मेरे यार ने, किया प्यार से वार।।
अंधियारी इक रात में, हावी था शैतान।
देवी अबला-सी लुटी, डूब मरा इंसान।।
वृद्ध आश्रम को चले, सूने हैं दालान।
धूप, चाय, अखबार की, सूख रही है जान।।
नौका, नाविक, नीर ने, डाल दिये हथियार।
तूफां से अब दुश्मनी, झेल रही पतवार।।
क़ैदी कुछ सुधरा अगर, हुई सफ़ल तब जेल।
ताम-झाम वरना गये, समझो सारे फ़ेल।।
घर के अंदर रात भर, चली आज तकरार।
काना-फूसी कर रही, किससे यह दीवार।।
अपनों ने दुत्कार कर, लेनी चाही जान।
खिला-पिला कर चल दिया, इक पागल अंजान।।
@ के. पी. अनमोल
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