Monday 4 January 2021

'नवल' के अक्टूबर-दिसंबर 2020 अंक में दो ग़ज़लें





ग़ज़ल-

मिल जाए सुख की इक झलक इतनी-सी आस पर
दुनिया खड़ी है कबसे दुखों के निवास पर

कब तक समझ न पाएँगे इक-दूसरे को हम
कब तक जड़े रहेंगे अँधेरे उजास पर

जंगल, नदी, पहाड़ उसे है बहुत पसन्द
सो रख दिया है मैंने इन्हें केनवास पर

पागल ज़मीं ने ओढ़ के रक्खा है आसमान
अब क्या कहूँ मैं आपके ऐसे क़यास पर

मुश्किल में उसका नाम दिखाएगा रास्ता
हमको बहुत यक़ीन है भई अपने 'पास' पर

कुछ तो इसी भरम में ही दरबार में रहे
मालिक कभी लुटाएँगे कुछ अपने ख़ास पर

अनमोल उस प्रताप की धरती का है पला
जिसने गुज़ारा कर लिया था सिर्फ घास पर

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ग़ज़ल-

मन के भीतर जब भी उदासी भर जाती है
थोड़ी-बहुत नहीं, अच्छी ख़ासी भर जाती है

ताज़ा रहने की कोशिश करता हूँ लेकिन
तनहाई क्यूँ मुझमें बासी भर जाती है

नाम उसका जब अँधियारे में जपता हूँ तो
हिम्मत मुझमें डेढ़-सवा सी भर जाती है

ब्लैक एण्ड व्हाइट नानी हो उठती है रंगीन
जाने कितने रंग नवासी भर जाती है

हुक्म चलाती है हम पर सिक्कों की खनखन
और हम सबमें कोई दासी भर जाती है

जब मैं उसका शुक्र अदा करने की सोचूँ
सुस्ती बहाने मुझमें अठासी भर जाती है

मछली-सा वो ख़ूब तड़पता होगा अनमोल
नदिया जिसमें सूखी-प्यासी भर जाती है


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