Friday 1 December 2023

ख़्वाबों की सीपियों में अनमोल सम्भावनाओं के मोती


अँधेरी रात में उजला नकाब पहने हुए
ये कौन आता है शाइर का ख्वाब पहने हुए

ये मतला पढ़ता हूँ के० पी० अनमोल की अद्यतन ग़ज़ल में और एक अस्पष्ट-सी पूर्वानुभव-भ्रांति (deja vu) की तरह-का कुछ कौंधता है मन में। मानो इस मतले को पहले भी पढ़ चुका हूँ कहीं! लेकिन ऐसा कैसे हो सकता है? आज ही तो रची हैं ये पंक्तियाँ शाइर ने, पहली बार आज ही तो लाई गयी हैं पाठकों के हुजूर में ये! फिर वो 'डेजा-व्यू' वाली मन:स्थिति क्यूँ? सोचता हूँ! पाँचवीं बार...  छठवीं बार... सातवीं बार पढ़ता हूँ ये मतला! और फिर मानो अचानक अपने-आपसे ही धुंध छंट जाती है। स्पष्ट हो जाता है कि पाठक का 'डेजा-व्यू' खामख्वाह नहीं था क्योंकि ये मतला नहीं, वरन मतले का 'मोटिफ' था, जो ये आभासी-विभ्रम पैदा कर रहा था मेरे द्वारा इन पंक्तियों के कहीं पहले भी पढ़ चुके होने का!

और वो 'मोटिफ' है- ख़्वाब! जी हाँ, अनमोल जी- 'ख़्वाब' ही तो आपकी गजलों का सबसे ज़्यादा पुनरावृत्त मोटिफ है! और क्यों न हो, शाइर का सबसे बड़ा मोटिवेशन ख़्वाबों से न आए तो और कहाँ से आए? कितनी उदास, बे-रंग और एकरस होगी वो शाइरी, यदि उसमें हो सिर्फ यथार्थ की फ़िक्र, और वो शाइरी जो हो बस कंक्रीट सच्चाईयों के सम्प्रेषण का माध्यम? बल्कि उसे ऐसा बनाने- उसके कलेवर को ऐसे सीमित करने- की तो कोशिश भी शाइरी के अंत की शुरुआत के सबब के अलावा और कुछ न होगी!

बहरहाल! ये रहे आपकी गजलगोई में ख़्वाब को शब्दों में ढालकर शेरों में पिरोने की चंद कोशिशों के नतीजे-


1.

ख़्वाब में देखा है जबसे लहलहाते खेत को
आ रही है मेरे भी भीतर से पानी की महक

2.

रात भर दो ख़्वाब जागे एक होकर
जूगनुओं ने पहरेदारी रात भर की

3.

नींद के शह्र से रात हम
ख़्वाब फिर कुछ चुरा ले गए!

4.

नींद से ये हुनर लिया जाए
ख़्वाब आँखों में भर लिया जाए

5.

अपनी ताबीर तक पहुँचने को
ख़्वाब आँखों में चलने लगते हैं

6.

तुम्हीं ने तो दिया जज़्बा है चलने का हमें वरना
ये ख़्वाबों के हैं जितने सिलसिले बिल्कुल नहीं होते

और फिर ये अद्यतन मतला-

7.

अँधेरी रात में उजला नकाब पहने हुए
ये कौन आता है शाइर का ख्वाब पहने हुए

ज़रा देखिए तो, कैसे मैच्योर हो रही है धीरे-धीरे आपके ख़्वाबों की सिफ़त? स्पष्ट दिख रहा है: देखिए कि आज से पहले के सारे शेरों में आपके ख़्वाब इस लहजे में व्यक्त हुए हैं मानों उन्हें देख, समझ, पकड़ पाना- और फिर उसकी ताबीर कर पाने में समर्थ हो पाना भी आपका एक बहुत बड़ा ख़्वाब ही रहा किया है! कभी आप चुरा लाते हैं उन्हें कहीं से, कभी उन जगहों का पता देते हैं जहाँ से चुराए जा सकते हैं वो! उपरोक्त दूसरे नम्बर का शेर देखें कि आपने जुगनूओं को पहरेदारी पे लगा रखा है, क्योंकि आप निश्चिंत नहीं अभी कि अकेले सम्भाल पाएँगे उनकी सुरक्षा का ज़िम्मा! छठे नम्बर के शेर में आप शुक्रिया अता कर रहे उनका- उन लोगों का, उन स्थितियों का- जिन्होंने आपकी समझ से आपको बख्शे हैं आपके ख़्वाब।

लेकिन आज आप एकदम से एकाकार हैं अपने ख़्वाबों से, जान चुके हैं उनकी नियत भी और उनके निहितार्थ भी। गो कि आप जान चुके हैं कि ग़ज़लनिगारी ही है असल में आपके अंतस में पलता ख़्वाब! वो आप ख़ुद ही तो हैं अनमोल जी, जिसे अन्यपुरूष की भूमिका में रखकर पूछ रहे हैं आप कि 'ये कौन आता है शाइर का ख़्वाब पहने हुए?'

बड़े विश्वास के साथ एक नई ज़मीन पर रखे हैं पाँव आपने- इस छायावादी-रहस्यानुभूति की ज़मीन पर..!! लेकिन हाँ, ये एक अवश्यंभावी ख़्वाबगाह भी है ख़्वाब पहने और ख़्वाब जीते लोगों की, आपके भीतर बैठे शाइर की! लेकिन सनद रहे कि ये ज़मीन यानी इस रोमांटिक मिस्टीसिज़्म का भाव-जगत जितना ज़्यादा आकर्षक, विविधतापूर्ण और सम्भावनाओं से भरा-पूरा है, कल्पना को उड़ान के लिए जितना बड़ा आकाश मुहैय्या कराने की क्षमता से युक्त है, उतना ही ज़्यादा फ़िसलन भरा भी है। यहाँ ज़रा-सा नियंत्रण खोया अपने भावों की अठखेलियों पर, ज़रा-सा अनुशासन में न रखा अपने माध्यम के शिल्प को और ज़रा-सा ढीला किया अपना दवाब अपनी सम्प्रेषणियता के औजारों पर तो ऐसी हवाई अभिव्यक्तियों, ऐसी अनर्थकारी व्यंजनाओं और ऐसी हास्यास्पद अतिशयोक्तिओं का जन्म होता है कि कल्पना ही शर्मा जाए। बहुतेरे उदाहरण दें तो ज़रूर कह सकता हूँ यहाँ पर अपने इस अभिकथन की पुष्टि के लिए प्रमाण के तौर पर लेकिन अफ़सोस हिंदी में एक भी स्मृति में नहीं​ इस वक़्त! सो बस इतना भर इंगित करके काम निकालना चाहूँगा यहाँ पर कि अंग्रेजी-कविता में John Donne के नेतृत्व में चले मेटाफिज़िकल पोएट्री के स्कूल ने ऐसी ढेरों कविताएँ दी हैं, जिसमें आपको स्पष्ट दिखेंगे कल्पना की लगाम को बिल्कुल ही हाथों से छोड़ देने के कुपरिणाम यानी एक घनघोर रूप से कृत्रिम और हास्यास्पद रूप से हवाई प्रकार के काव्य का सृजन! प्रशंसा की बात है आप इस ग़ज़ल में बड़ी आसानी से निबाह ले गये हैं इस धोखेबाज़ ज़मीन पर सधे-हुए क़दमों से चलने का तौर...वाकई!

बस...फ़िलहाल के लिए तो बस यही है शब्दों में रूपांतरित उन भावों की अंतर्वस्तु, जो आपकी इस नई ग़ज़ल के बरअक्स कुलबुलाते रहे हैं मेरे मन में।

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© राकेश कुमार, 08 जुलाई 2017

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