Wednesday 12 April 2023

नए समय का संज्ञान- ज्ञानप्रकाश विवेक

 के० पी० अनमोल नए समय के यथार्थ में ज़रूरी हस्तक्षेप पैदा करते हैं। यथार्थ की आँखों में आँखें गड़ाकर देखना और उसे ग़ज़ल के ज़रिए व्यक्त करना- जिस तज़ुर्बे और हौसले की माँग करता है, वो उनके पास है। उनके पास आधुनिक बोध है, जिससे वो अनुभूत किये गये समय के विसंगत को नए लबो-लहजे में व्यक्त करते हैं।

वो कहते हैं- 'हैरान हूँ मैं आज का अखबार देखकर' तो इसी एक मिसरे में पूरे परिदृश्य को रेशा-रेशा कर देते हैं। यह मिसरा जितनी सामाजिक अभिव्यक्ति है उतनी राजनीतिक और आर्थिक। किसी भी दिन का अख़बार समाज और सियासत की विडम्बनाओं की चीखती हुई तहरीर होता है। एक अन्य ग़ज़ल का एक मिसरा है- 'मुफ़लिसों की बस्तियों की ही तरह बदनाम हूँ' यह मिसरा अपने आप में सम्पूर्ण कविता है। इस मिसरे में एक प्रश्न भी है कि आख़िर मुफ़लिसों की बस्तियाँ ही बदनाम क्यों होती हैं? यही विडम्बना है। समाज का दृष्टिबोध कितना ऐबी है कि उसे प्रपंच रचने वाली संपन्न कॉलोनियाँ पाक-साफ़ नज़र आती हैं और मुफ़लिस की बस्तियाँ बदनाम!
कवि ख़ुद को उसी बदनाम बस्ती जैसा बताते हुए जुर्रत का काम लेता है। शेर का दूसरा मिसरा बेशक साधारण है लेकिन इस ग़ज़ल के मक्ते में वो अपने होने का एहसास कराते हैं- 'मैं फ़क़त अनमोल लफ़्ज़ों की नहीं कारीगरी!'

ज़ाहिर है के० पी० अनमोल एक बेचैन युवा ग़ज़लकार हैं, जो ग़ज़ल की दुनिया में सिर्फ मीनाकारी के लिए प्रविष्ठ नहीं हुए बल्कि नई वैचारिक तबो-ताब लेकर आये हैं। वो कहते भी हैं- 'बगल में डालकर थैला ये बच्ची, नहीं पढ़ने कमाने जा रही है।'
फूल, तितली, बच्चे, पार्क, समंदर, कश्ती, खिलौने, सपने के विपरीत के० पी० अनमोल ने एक बच्ची और उसके मुश्किल दिन को शेर में व्यक्त किया है। ग़ज़लकार ने जब बच्ची को पहली बार सरसरी तौर से देखा तो उसे लगा कि वह स्कूल जा रही है लेकिन बाद में (ग़ौर से देखने पर) वो इस यथार्थ से टकराया कि नहीं, पढ़ने....कमाने जा रही है। यह शेर बेहद सादगी से व्यक्त किया गया है और सादगी इस शेर की आत्मीयता है।

के० पी० अनमोल नए समय के यथार्थ को प्रखर दृष्टि से देखते-परखते हैं। शेर कहते हुए वो एक वातावरण रचते हैं। यह ग़ज़ल का वातावरण सरगर्मी से भरपूर, जीवन्त और चेतना सम्पन्न होता है। उसके अशआर में नए मध्यम वर्गीय समाज (जो बेहद स्वार्थी और आत्मकेन्द्रित हो चुका है) के बनते-बिगड़ते मूल्यों का बोध तो होता ही है, वो तनाव भी होता है, जो इस बदहवास समाज ने अपने लिए अपनी जीवनशैली की वजह से ख़ुद पैदा किया है। अनमोल का एक शेर इसी सिलसिले में-
कहाँ तुम दौड़े भागे जा रहे हो
समय तो ख़ुद कहीं अटका पड़ा है

शेर में तंज नहीं, फिक्राकशी भी नहीं। बस एक दोस्ताना सलाह है- बदहवास भागते समय को पकड़ने की कोशिश में मसरूफ़ लोगों के लिए और यह एहसास कराते हुए- समय तो ख़ुद कहीं अटका पड़ा है।

इधर नए युवा ग़ज़लकारों ने इश्क़ जैसे शाश्वत विषय को हिंदी ग़ज़ल में कथ्य के रूप में प्रविष्ठ किया है। किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है। विधाओं में ना सरहदें होती हैं ना चार-दिवारियाँ लेकिन समाज की विडम्बनाओं को दरकिनार करते हुए मैं और तू के बीच की कशमकश को ही ग़ज़ल का केन्द्र बना लेना ग़ज़ल के विशाल परिसर को सीमित करने जैसा है लेकिन अनमोल सचेत और अनुभव सम्पन्न युवा ग़ज़लकार हैं।

प्रेम जैसा विषय उनके यहाँ भी है लेकिन वो भी आख्यान से होकर मिथकीय रूप में व्यक्त होता है। मिथक को नए सामाजिक मूल्यों के साथ प्रस्तुत करना चुनौतीपूर्ण होता है। शेर है-

राधा काहे मुरली की दीवानी है
मुरलीधर को आज तलक हैरानी है
यहाँ प्रेम जैसा शब्द कहीं नहीं लेकिन उसका वैभवशाली रूप पसे-मंजर है। एक शब्द गौरतलब है- ‘मुरलीधर!’
शेर में कुछ शब्द किसी चमकते हुए नग की तरह होते हैं। मुरलीधर ऐसा ही शब्द है। मुरलीधर में लयातम्कता तो है ही, शेर में आकर यह शब्द (या मिथक) नया रूप-रंग अख्तियार करता है।

के० पी० अनमोल एक बच्ची को किरदार बनाते हैं तो संवेदना वहाँ गूंजती हुई महसूस होती है, वो मिथक को केंद्र में रखकर शेर कहते हैं तो भारतीय संस्कृति का शिद्दत से एहसास होता है, वो बदहवास समाज पर तब्सरा करते हैं तो उस समाज का अदृश्य तनाव महसूस होता है। अनमोल जब सम्बन्धों को केन्द्र में रखकर शेर कहते हैं तो नए समाज के भीतर का विखंडन और बिखराव शिद्दत से महसूस होता है-
खेल, मस्ती, दोस्त, बचपन अब भी हैं दिल में बसे
दिन मगर चलते बने हैं इक कमी को छोड़कर

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बाप नहीं रो पाता बेटों के आगे
बूढी आँखों में भी कितना पानी है

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जब-जब संवादों में खाई होती है
सम्बन्धों में हाथा-पाई होती है

तीनों अशआर सामाजिक मूल्यों के पतन को बड़ी मार्मिकता से व्यक्त करते हैं।

शायरी की बुनियादी शर्त अगर शायरी है तो अनमोल उसकी भरपूर पैरवी करते हैं। अनमोल ऐसे युवा ग़ज़ल लेखक हैं, जो मिसरों की दुनिया में बेचैन कर देने वाली रचनात्मकता को व्यक्त करते हैं और इस सादगी से करते हैं कि वही सादगी हलाक करती नज़र आती है, शेर है-
तुम्हें जिस भरोसे का सर काटना था
हमें उसके दम पे सफ़र काटना था

यहाँ विरोधाभास है। यही विरोधाभास शक्ति की तरह है। वरना विरोधाभास ही 'क्लीशें' हो जाता है और शेर ख़ारिज! लेकिन यह विरोधाभास दो विचारों का विरोधाभास है। हम यह भी कह सकते हैं कि यह इंसानी क़द्रों का शेर है। दो मिसरों (एक शेर) के बीच एक अदृश्य 'डिवाइडर' है। यह डिवाइडर तुम और हम की शैली के बीच है। 'तुम्हें जिस भरोसे का सर काटना था' यह मुहावरा है और शेर की रीढ़ है। विध्वंस तुम्हारा शेवा हो तो हो हमें उसी भरोसे, उस ही जीवन मूल्यों (जो मानवतावादी सोच की हिफ़ाज़त करते हों) के सानिध्य में ज़िन्दगी बसर करनी है। एक सशक्त शेर की कई तहें होती हैं, कई पाठ होते हैं। इस शेर की भी कई तरीक़े से तशरीह की जा सकती है। यह शेर का गुण है।

हिन्दुस्तानी तहज़ीब इतनी विराट और विशाल है कि उसे हज़ारों रंग-रूप में देखा, परखा और महसूस किया जा सकता है। यह हिन्दुस्तानी तहज़ीब है कि यहाँ पतला-सा कच्चा धागा भी विश्वास की मजबूत मान्यता में बदल जाता है। अनमोल इसी हिंदुस्तानियत के जज़्बे पर शेर कहते हैं तो पीपल और उस पर लिपटे धागे किसी प्रतीक की तरह सामने आ खड़े होते हैं। शेर है-
हैरत है पीपल की शाखों से कैसे अरमां
पतले-पतले धागों में आकर बंध जाते हैं

देखना यह भी होता है कि एक युवा अथवा वरिष्ठ ग़ज़लकार अपनी रचनात्मक शक्ति का कितना उपयोग करता है और कितना विस्तार दे पाता है। एक संजीदा ग़ज़लकार के लिए अपनी बनी-बनायी रचनात्मक दुनिया को तोड़ना भी ज़रूरी होता है ताकि वो नई तख्लीक का सृजन कर सके और दोहराव से भी बच सके।

अनमोल की ये कोशिशें प्रभावित करती हैं। उनकी शेरगोई में जो वैचारिक विस्तार है उसी सिल्सिले में ये अशआर-

इक माँ के दिल पे सोचिये क्या बीतती होगी
दो भाईयों के बीच की दीवार देखकर

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बढाओ हौसला इंसानियत का
किसी कोने में वो टूटा पड़ा है

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शाम गुज़री झील की गोदी में सूरज डालकर
यूँ लगा दादी चली है पोटली को छोड़कर

पहले शेर में माँ की व्यथा-कथा है। तो दूसरे में इंसानियत के टूटने की मध्यम-सी आवाज़ें हैं। यहाँ अनमोल समाज से मुख़ातिब हो रहे हैं। इस शेर में ख़लिश है, बेचैनी है और वेदना भी है। इंसानियत यानि मनुष्यता को बचाए रखने का जज़्बा शेर का यह उज्ज्वल पक्ष है। तीसरा शेर! इमेजिस की रचना और इसी में रूपक का होना! शेर बिम्बात्मक है और दिखाई देने लगता है।

प्राय: हर सशक्त ग़ज़लकार के पास दो तत्व लाज़मी होते हैं- स्मृतियाँ और तलाश! यहाँ माँ की स्मृतियाँ हैं और वो प्रबल भावना के साथ व्यक्त होती हैं।
शेर है-
माँ की बातें गाँठ बांधकर लौटा है
कुछ सौगातें गाँठ बांधकर लौटा है

अभी-अभी माजी से यादों की अनमोल
कुछ बारातें गाँठ बांधकर लौटा है

छोटी बहर की इस ग़ज़ल में आधे से ज़्यादा हिस्सा रदीफ़ के हवाले है। इसके बावजूद शेर में आकर्षण है तो इसलिए कि इसमें स्मृतियों की गूंज है। रदीफ़ के गुम्बद में स्मृतियों की गूंज! यही गूंज सम्मोहन पैदा करती है।

अनमोल की एक ग़ज़ल में कुछ नया-सा प्रयोग है। यहाँ 'हद' रदीफ़ है। अमूमन शेर काफ़िये के गिर्द घूमते हैं। यहाँ रदीफ़ की अहमियत है। बात हद की है लेकिन जब बात किसी दूसरे के अवसाद को समझने की हो तो बात हद की होती है और बे-हद की भी। शेर है-
किसी के हाथ फैले देखकर दिल बैठ जाता है
कभी देखी है मेरी जेब ने भी मुफ़लिसी की हद

के० पी० अनमोल युवा ग़ज़लकार हैं। नए वक्तों के तज़ुर्बे उनकी ग़ज़लों में है। नए समाज में जो जीवन मूल्यों और सामाजिक सरोकारों का क्षरण हुआ है, उसकी चिंता यहाँ है और वो साफ़-शफ्फाक है। वो सूझ-बुझ के साथ शेर कहते हैं। कुछ इस सलीक़े से कि बाज़ार की जगमग संस्कृति की पृष्ठभूमि में जो ज़ुल्मत है तथा अभावों का बीहड़ है, ग़ज़ल दृष्टि वहाँ तक पहुँचे। वो इस कोशिश में निरन्तर सफल भी होते हैं (नहीं भी होते) लेकिन जो मानीखेज है वो है अपने समय की विडम्बनाओं का संज्ञान लेना। वो कहते हैं- 'लगा ठोकर ज़माने को कलन्दर हो गया हूँ मैं!' यह आत्मविश्वास से भरी जुर्रत उनकी रचनात्मक शक्ति है। वो फेसबुक पर सक्रीय रहते हैं और तपाक से कहते हैं-

मेरी उम्मीद बंजर हौसलों पर
नए सपने उगाने जा रही है।

यह ग़ज़लगोई नए सपने उगाने वाले के० पी० अनमोल का आश्वस्तकारी सफ़र है।



(हिंदी ग़ज़ल की नयी चेतना, ज्ञानप्रकाश विवेक, प्रकाशन संस्थान नयी दिल्ली, प्रथम संस्करण 2018, पृष्ठ 220-224)

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