Thursday 4 August 2016

ग़ज़ल-


खून-ए-दिल से लफ्ज़ मुअत्तर करता है
क्या क्या जादू एक सुख़नवर करता है

रात रात भर ख़ुद ही ख़ुद में जग जगकर
दुनिया भर की सोच मुनव्वर करता है

मेरा बेड़ा मंझधारों में उलझा के
एक छलावा रोज़ समन्दर करता है

पेशानी पर बोसा तेरी चाहत का
दिल पर कितने जंतर-मंतर करता है

गैरों को मुस्कान बाँटने वाला ही
मातम अक्सर अंदर अंदर करता है

अपनी कमियाँ ढूँढा करता है अनमोल
ऐसे ख़ुद को ख़ुद से बेहतर करता है

- के. पी. अनमोल

मुअत्तर= खुशबूदार, सुख़नवर= साहित्यकार, मुनव्वर= रौशन, पेशानी= ललाट, बोसा= चुम्बन

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